गुरुवार, 13 सितंबर 2012

मैं हिन्दी हूँ ..

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मैं हिन्दी हूँ। बहुत दुखी हूँ। स्तब्ध हूँ। समझ में नहीं आता कहाँ से शुरू करूँ? कैसे शुरू करूँ? मैं, जिसकी पहचान इस देश से है, इसकी माटी से है। इसके कण-कण से हैं। रोज अपने ही आँगन में बेइज्जत की जा रही हूँ। कहने को संविधान के अनुच्छेद 343 में मुझे राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। अनुच्छेद 351 के अनुसार संघ का यह कर्तव्य है कि वह मेरा प्रसार बढ़ाएँ। पर आज यह सब मुझे क्यों कहना पड़ रहा है?

मन बहुत दुखता है जब मुझे अपनी ही संतानों को यह बताना पड़े कि मैं भारत के 70 प्रतिशत गाँवों की अमराइयों में महकती हूँ। मैं लोकगीतों की सुरीली तान में गुँजती हूँ। मैं नवसाक्षरों का सुकोमल सहारा हूँ। मैं जनसंचार का स्पंदन हूँ। मैं कलकल-छलछल करती नदियाँ की तरह हर आम और खास भारतीय ह्रदय में प्रवाहित होती हूँ। मैं मंदिरों की घंटियों, मस्जिदों की अजान, गुरुद्वारे की शबद और चर्च की प्रार्थना की तरह पवित्र हूँ। क्योंकि मैं आपकी, आप सबकी-अपनी हिन्दी हूँ।
विश्वास करों मेरा कि मैं दिखावे की भाषा नहीं हूँ, मैं झगड़ों की भाषा भी नहीं हूँ। मैंने अपने अस्तित्व से लेकर आज तक कितनी ही सखी भाषाओं को अपने आँचल से बाँध कर हर दिन एक नया रूप धारण किया है। फारसी, अरबी, उर्दू से लेकर 'आधुनिक बाला' अंग्रेजी तक को आत्मीयता से अपनाया है। सखी भाषा का झगड़ा मेरे लिए नया नहीं है।

पहले भी मेरी दक्षिण भारतीय 'बहनों' की संतानों ने यह स्वर उठाया था, मैंने हर बार शांत और धीर-गंभीर रह कर मामले को सहजता से सुलझाया है। लेकिन इस बार मेरी अनन्य सखी मराठी की संतानें मेरे लिए आतंक बन कर खड़ी है। इस समय जबकि सारे देश में विदेशी ताकतों का खतरा मँडरा रहा है, ऐसे में आपसी दीवारों का टकराना क्या उचित है?

लेकिन कैसे समझाऊँ और किस-किस को समझाऊँ? मैं क्या कल की आई हुई कच्ची-पक्की बोली हूँ जो मेरा नामोनिशान मिटा दोगे? मैं इस देश के रेशे-रेशे में बुनी हुई, अंश-अंश में रची-बसी ऐसी जीवंत भाषा हूँ जिसका रिश्ता सिर्फ जुबान से नहीं दिल की धड़कनों से हैं। मेरे दिल की गहराई का और मेरे अस्तित्व के विस्तार का तुम इतने छोटे मन वाले भला कैसे मूल्यांकन कर पाओगे? इतिहास और संस्कृति का दम भरने वाले छिछोरी बुद्धि के प्रणेता कहाँ से ला सकेंगे वह गहनता जो अतीत में मेरी महान संतानों में थी।

मैंने तो कभी नहीं कहा कि बस मुझे अपनाओ। बॉलीवुड से लेकर पत्रकारिता तक और विज्ञापन से लेकर राजनीति तक हर एक ने नए शब्द गढ़े, नए शब्द रचें, नई परंपरा, नई शैली का ईजाद किया। मैंने कभी नहीं सोचा कि इनके इस्तेमाल से मुझमें विकार या बिगाड़ आएगा। मैंने खुले दिल से सब भाषा का,भाषा के शब्दों का, शैली और लहजे का स्वागत किया। यह सोचकर कि इससे मेरा ही विकास हो रहा है। मेरे ही कोश में अभिवृद्धि हो रही है। अगर मैंने भी इसी संकीर्ण सोच को पोषित किया होता कि दूसरी भाषा के शब्द नहीं अपनाऊँगी तो भला यहाँ तक उद्दाम आवेग से इठलाती-बलखाती कैसे पहुँच पाती?

मैंने कभी किसी भाषा को अपना दुश्मन नहीं समझा। किसी भाषा के इस्तेमाल से मुझमें असुरक्षा नहीं पनपी। क्योंकि मैं जानती थी कि मेरे अस्तित्व को किसी से खतरा नहीं है। महाराष्ट्र की घटनाओं से एक पल के लिए मेरा यह विश्वास डोल गया।

पिछले दिनों मैं और मेरी सखी भाषाएँ मिलकर त्रिभाषा फार्मूला पर सोच ही रही थी। लेकिन इसका अर्थ यह तो कतई नहीं था कि हमारी संतान एक-दूसरे के विरुद्ध नफरत के खंजर निकाल लें। यह कैसा भाषा-प्रेम है? यह कैसी भाषाई पक्षधरता है? क्या 'माँ' से प्रेम दर्शाने का यह तरीका है कि 'मौसी' की गोद में बैठने पर अपने ही भाई के मुँह पर तमाचा मार दो? क्या लगता है आपको, इससे 'मराठी' खुश होगी? नहीं हो सकती। हम सारी भाषाएँ संस्कृत की बेटियाँ हैं। बड़ी बेटी का होने का सौभाग्य मुझे मिला, लेकिन इससे अन्य भाषाओं का महत्व कम तो नहीं हो जाता। पर यह भी तो सच है ना कि मुझे अपमानित करने से मराठी का महत्व बढ़ तो नहीं जाएगा?

यह कैसा भाषा गौरव है जो अपने अस्तित्व को स्थापित करने के लिए स्थापित भाषा को उखाड़ देने की धृष्टता करें। मुझे कहाँ-कहाँ पर प्रतिबंधित करोगे? पूरा महाराष्ट्र तो बहुत दूर की बात है अकेली मुंबई से मुझे निकाल पाना संभव नहीं है। बरसों से भारतीय दर्शकों का मनोरंजन कर रही फिल्म इंडस्ट्री से पूछ कर देख लों कि क्या मेरे बिना उसका अस्तित्व रह सकेगा? कैसे निकालोगे लता के सुरीले कंठ से, गुलजार की चमत्कारिक लेखनी से? अपनी सोच को थोड़ा सा विस्तार दो, मैं तो सबकी हूँ। और रहूँगी। मेरा जीते जी श्राद्ध नहीं मनाओ। पुण्यतिथि नहीं मनाओ, हो सके तो मुझे दिल में बैठाओं।

मैं हिन्दी हूँ। बहुत दुखी हूँ। स्तब्ध हूँ। समझ में नहीं आता कहाँ से शुरू करूँ? कैसे शुरू करूँ?

शनिवार, 8 सितंबर 2012

Wo Bada Kya Hua Sar Pe Hi Chadha Jaata Hai..

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"Ungliyaan Thaam Ke Khud Chalna Sikhaaya ttha Jisey..

Raah Mein Chhod Gaya Raah Pe Laaya ttha Jisey..

Usne Ponchhe Hi Nahi Ashk Meri Aankho Se..

Maine Khud Ro Ke Bahot Deir Hansaaya ttha Jisey..

Bas Usi Din Se Khafa Hai Wo Mera Ek Chehra..

Dhoop Mein Aaina Ek Roz Dikhaaya ttha Jisey..

Dey Gaya Ghaav Aise Ke Jo Bharte Hi Nahi..

Apne Seene Se Kabhi Maine Lagaaya ttha Jisey..

Wo Bada Kya Hua Sar Pe Hi Chadha Jaata Hai..

Maine Kaandhe Pe Kabhi Hans Ke Bithaaya ttha Jisey" ..

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